Thursday, February 1, 2007

मधुलिका- भाग् पॉच

"कभी कभी कुछ अन्धेरे
उन अनेक उजालों से ,
कुछ पूर्ण विराम
उन अधूरी बातों से ,
कहीं ज़्यादा सुख दे जाते है ।
इन नये सवालो पे
बस मधुलिका
विराम लगा सकती थी ।
पर वो आज बस निरन्तर
स्व्यम को रोके जा रही थी ।
आज हवा भी इतनी तीव्र थी
के मानो धैर्य के ,
बान्ध मे ना समा रही हो ।
मैने रोका और कहा
हे तेजस्विनी !
यू व्याकुल ना हो
समय हर जवाब दे जाएगा
मधुलिका का जीवन क्या
फिर परिवर्तन के अधीन हो जाएगा ?
की वो वही रहेगी या
वसन्त खुशी बन उसे साथ ले जाएगा ?
पर जो कहते मैने सुना
वो समय भी ना सुन पाएगा
की विधाता उसे ढाल बना
ऐसा खेल रचाएगा ।

रात का वह सन्नाटा
जो बढ्ने को आया
तो मधुलिका के शब्दो ने
फिर एक बार उसे जगाया ।
उसकी वाणी सुनने
स्व्यम कूऍ का पानी जम गया ।
आज बादल और मेरे साथ
समय भी रुक गया ।
आठ वर्ष बीत गये इन्तज़ार के
अब तुम आये हो !
समझ नही आता
की जो नीर अब तक बहे
उसके लिये क्या उपाय लाये हो ?
जब पिता बन के आना था
तुम पति बन के आये हो ;
मेरे दुर्भाग्य को परखने
तुम देवता बन आये हो ।
पहले अपने लिये गये थे ,
आज मेरे लिये चले जाओ ।
और जो साथ कल लये हो
उसे भी लिये जाओ ।
इससे पहले रात का अन्धकार
कुछ समझ ही पाता
और भोर का पौ फट पाता,
कुछ क्रोध और कुछ असमन्जस मे
वसन्त उठा और चला गया ;
मधुलिका का मन जैसे
मानों उसी पल
पाताल मे समा गया । "

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