Friday, February 2, 2007

मधुलिका - भाग चार

रात और दिन तो
मानव की सोच मे है ।
मेरे लिये तो उनमे,
सिर्फ समय का अन्तर है ;
जैसे सोने और जागने मे
एक सिर्फ स्थिथी का ,
मात्र चाहने और होने का
ऑख खुलने का ही अन्तर है ।
मेरा तातपर्य मधुलिका से ,
और उसके जीवन से,
दूर जाना नही है ।
सिर्फ ये समझाना है की ,
दिन के होने से उसका ,
कोइ भी दुख या सुख
बदल नही सकता ।
मधुलिका बहुत विचलित थी
और ये नही समझ पा रही थी
की अब क्या उसे करना है ।
मनुष्य नदी समान अपनी
उथल पुथलता लिये
यू आगे बढ्ता रेह्ता है ।
मार्ग रहित आखे बन्द किये
यू ही चलता है ;
द्रिष्टी रहित !
मार्ग रहित !
पर मधुलिका के जीवन मे ,
अन्धेरा सिर्फ यादों का था ।
व्यर्थ बातो का था ।
वो आज वसन्त को देख के भी ,
नही देख पाती थी ।
बार बार कान बन्द कर लेती ,
और उसे सुनने से मना करती
जो की उसका आज है ।

चलो मधुलिका मै तुम्हे लेने आया हूं
जो अब तक ना दिया वही देने आया हूं


अपने ईश्वर से बोली
ये सत्य मै ना समझ पा रही हूं
अपने ही अन्तर्मन मे डूबे जा रही हूं
वही जिसने मेरा कल बिगाडा
मेरा आज सन्वारने आये ;
तो ऐसे मे कैसे मन
इसे सत्य मान पाये ।
मुझे आज भी याद है ,
कैसे मैने उसे भुलाया है ।
वही जिसे आपने वर्त्मान बना ,
सामने मेरे फिर बुलाया है ।
बहुत बडी उल्झन है ।
सवाल भी गेहरा है ।
महुलिका के आज पर ,
उसके कल का पेहरा है ।
पर आने वाला दिन
कोइ तो हल लाएगा ।
चाह के भी ना कोइ
कल को ना रोक पाएगा ।
नारी का मन पढने की कभी
कोशिश ना की थी ;
आज की तो जान
उसे कोइ ना समझ पाएगा।
जिसने इतना दुख देखा है
उसे क्या सुख समझ आएगा ?
क्या इसी सन्तुलन को निभाना
उसका जीवन बन जाएगा ?

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