Friday, February 23, 2007

मधुलिका -द्वितिय

"रात को यूॅह कभी
आशारिक्त न देखा होगा ।
वरना रात तो सदेव
सुबह की ,सुर्य की
आशा करती जाती है ।
इतने में रात बोली
उतना सत्य जो वो जानती थी
क्यों की पूर्ण सत्य मे तो
सिर्फ नारायण की ही गिनती थी ।
बोलने लगी,
ना नीर बह्ते है
ना दुख का उसे कुछ आभास है
मधुलिका के जीवन मे
बस मेरा ही आवास है ।
मै तब भी यही थी
जब मधुलिका न बोल पाती थी
और मां उसकी, उसे गोद में ले
बाहर रोने आती थी ।
बेटा ना होने के गम ने
यूं उसे ले खाया था
हर रात को उसने मधुलिका के
बचपन मे विष मिलाया था ।
दिन भर मां को पुकार
जब मधुलिका थक जाती
तो मुझे मां समझ सोने आ जाती ,
कोइ मां का कपडा पकड के रोज्ञ लाती थी ।
उसकी खुशबू को ममता
और मुझे मां समझ सो जाती थी ।
फिर मेरा साया उसके जीवन पर यूं आया
की आज जब खुद मां बनी
तो बेटा बेजान और अपाहिज पाया ।
पर ऐसा नही है की
जीवन मे उसके वसन्त ना आया था ,
एक रात उसने उसे भी जाता पाया था ।
हर दिन उसे थका ,
और रात को सूना पाया है ।
ये भाग्य ने कैसा जाल बिछाया है ।
किसी से कुछ ना कह पाना ,
उसे मैने ही सिखलाया है ।
हर रात बुत बन खडी हो ,
बस मुझे रुलाया है ।
मुझे मेरे अन्धकार के लिये ,
आज सबने दोशी ठहराया है"

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