Sunday, February 25, 2007

यात्रा

मैं मेघ हूं ।
धरती और नारायन के बीच मे ,
बसा मेरा विशाल अस्तित्व है ।
चिन्ता रहित घूमना ,
जब मन भारी हो तो बरस जाना ,
यही मेरा, एक मात्र, दाईत्व है ।

धरती पे जीवन बसा के ,
नारायन सुर्य,चन्द्र और मुझे कह गये ।
मानव अपना कर्म करेंगे ,
और तुम अपना करना ,
जीवन की रक्शा करना ।
तो बस तब से मै भटक रहा हूं ,
मानव रचना समझ रहा हूं ।

भटक तो मानव भी गया है ,
पर वो उसका कर्म नही है ।
उसका कर्म,
एक अद्भुत शिलान्यास है ,
निरन्तर जीने का प्रयास है ।

मेरा कर्म उसे दिशा देना नहीं है ,
मैं तो स्वयम दिशाहीन हूं ।
मेरा कर्म उसे सिर्फ जगाना है ,
उडना ,रुकना और चलते जाना है ।
मैं अपनी कर्मठता से विवश हूं ,
इस लिये कही रुक नही पाऊंगा ।
बस कविता समान बह कर ,
हर दिन कथन कह्ता जाऊंगा।

Saturday, February 24, 2007

मधुलिका - प्रथम

"ये क्या देख रहा हूं
उसकी ऑखों में फिर ,
वही सूनापन देख रहा हूं ।
मधुलिका को आज फिर ,
अकेला देख रहा हूं ।
कुछ साल पहले याद नही कितने ,
मधुलिका की आंखो को ,
खुद को देखता पाया था ।
बाकी तो सब बदल गया है ,
बस वही ताकती आखें हैं ।
तब भी इतने सवाल थे उनमे ,
की लगा था मुझे ,
नाम इसका प्रशनावली होगा ।
आज भी उसमे कोइ बात
मुझे चुभ जाती है ,
कि बस कही मेरी गती थम जाती है ।

तभी देखा की कोइ पुकारता ,
एक पैर ज़मीन पर घसीटता
"मां" कह्ता आ रहा था ।
मुझे रिश्तो की समज़ तो थी
हालाकीं इन्हे मानव जितना
मैं मेहसूस नही कर पाता ।
पर ये शब्द "मां"
मुझे अत्यन्त भाता ।
पहले मैं रुका नही था ,
पर हवा मुझे कहे जा रही थी ,
की शायद रुकना होगा आज
और अब कल ही आगे ,
किसी और दिशा चलना होगा ।

रात में और मुझमॅ गहरी दोस्ती है ।
पर आज वो कुछ परेशान थी ।
मैने जैसे ही कुछ कहा वो रो पडी ।
हम सब में एक बस रात है ,
जिसे नारायन ऑसूं दे गये है ।
बोली मैं और ये देख नही सकती ,
मधुलिका की पीड़ा का ,
दुख का और कारण नही बन सकती ।
मै हैरान था की रात को ,
ये क्या भ्रम अवश्य एक भ्रम हुआ है ।
हम सब तो सिर्फ यन्त्र है ,
कैसे फिर संगीत बिगाड सकते हैं ।
हम तो गान्डीव का तीर हैं ,
कैसे दिशा साध सकते हैं ।
पर बिना कथा जाने कुछ कहना ,
या कभी कभी सब कुछ कह जाना ,
सिर्फ मनुष्य का स्वभाव है ।
तभी स्वयम रात बोली ,
मेरा आना ही उसका दुर्भाग्य बन जाता है
और अब ये स्वयम मुझे दुखी कर जाता है। "

Friday, February 23, 2007

मधुलिका -द्वितिय

"रात को यूॅह कभी
आशारिक्त न देखा होगा ।
वरना रात तो सदेव
सुबह की ,सुर्य की
आशा करती जाती है ।
इतने में रात बोली
उतना सत्य जो वो जानती थी
क्यों की पूर्ण सत्य मे तो
सिर्फ नारायण की ही गिनती थी ।
बोलने लगी,
ना नीर बह्ते है
ना दुख का उसे कुछ आभास है
मधुलिका के जीवन मे
बस मेरा ही आवास है ।
मै तब भी यही थी
जब मधुलिका न बोल पाती थी
और मां उसकी, उसे गोद में ले
बाहर रोने आती थी ।
बेटा ना होने के गम ने
यूं उसे ले खाया था
हर रात को उसने मधुलिका के
बचपन मे विष मिलाया था ।
दिन भर मां को पुकार
जब मधुलिका थक जाती
तो मुझे मां समझ सोने आ जाती ,
कोइ मां का कपडा पकड के रोज्ञ लाती थी ।
उसकी खुशबू को ममता
और मुझे मां समझ सो जाती थी ।
फिर मेरा साया उसके जीवन पर यूं आया
की आज जब खुद मां बनी
तो बेटा बेजान और अपाहिज पाया ।
पर ऐसा नही है की
जीवन मे उसके वसन्त ना आया था ,
एक रात उसने उसे भी जाता पाया था ।
हर दिन उसे थका ,
और रात को सूना पाया है ।
ये भाग्य ने कैसा जाल बिछाया है ।
किसी से कुछ ना कह पाना ,
उसे मैने ही सिखलाया है ।
हर रात बुत बन खडी हो ,
बस मुझे रुलाया है ।
मुझे मेरे अन्धकार के लिये ,
आज सबने दोशी ठहराया है"

Tuesday, February 20, 2007

मधुलिका - भाग तीन

"इतने में मधुलिका आ गयी ,
रात पे जैसे चुप्पी सी छा गयी ,
वो अपने हाथ मे कुछ ले आयी थी ।
एक टुकडा था कागज़ का ,
जिसे पढ के आखों मे उसके
शायद नमी आयी थी ।
क्या था उस कागज़ मे ?
रात को भी ना कोइ अनुमान था ,
बीती हुई बातो का
फिर मुझे कहां ग्यान था ।
एक टक उसने ऊपर देखा
उसके सारे दुख मुझे ,
अब नज़र आ गये ।
कुछ अनकहे शब्द
जो मधुलिका के नयन से बह ,
धर्ती मे समा गये ।
कैसे ले आऊं वो पल
वो जो सारे बीत गये !
हे अन्तरयामी क्यों सुख सारे
जीवन से मेरे छीन गये ?
अब ये क्या खत लेके आये हो
वसन्त को यहां क्यो लाये हो ?
उसे गये हुए अब कई साल हो गये
अकेले जीने का अब
अभ्यास सा हो गया है ।
अब उसे यहां क्यों आना है ?
जो बचा है क्या वो भी ले जाना है !
इतना बोल वो चली गयी ,
रात को फिर रोने की आज़ादी मिल गयी ।
अब मुझे सब कुछ नझर आ रहा था ,
मन ही मन मै मुस्कुरा रहा था ।

निराधार है ये सन्ताप ।
कल के लिये आज रोना ,
है बहुत बडा पाप ।
फिर मैने रात से कहा
ये अग्यानता मत दिखाओ
यू भाग्य और कर्म को
अपने अस्तित्व से न जोडे जाओ ।
जो मधुलिका के जीवन में है
उसे देखना ही होगा ।
पहले यूं सन्ताप कर
विधाता की हंसी न उडाओ ।

जन्म से जुडे हुए सवाल ,
हम कभी ना जान सकते है ।
आम के पेड पे आम ही आएगा ,
बस यही मान सकते है ।
अब सिर्फ मानव ही
इसपे सवाल लगायेगा ।
मधुलिका साहसी है
और यही साहस
उसका गेहना बन जायगा ।
हम और तुम चाह कर भी ,
उसका कल नहीं बदल सकते ।
और जो कल हो गया उसे
देख के आगे नही बढ सकते ।
मधुलिका की पीडा का
तुम कारण नही !
और न ही आने वाली खुशी
मेरे या तुम्हारे वश मे है !
पर जीवन मे हर पल का ,
कोइ न कोइ कारण है ।

जो उसे दुख दिखा रहा है ,
वो सुख भी दिखाएगा ।
जो इस जन्म मे मानव ने किया ,
वो उसे यहीं मिल जाएगा ।
समय से पहले दुखी होना ,
सिर्फ मानव स्वभाव है ।
तू ये दुख अब ना कर ,
ना ही ये तेरा काम है ।
अगर मधुलिका को कुछ देना है ,
तो उसे चुप्पी नही शन्ति दे ,
जिसमे सम्पूर्ण धर्ती सो जाती है ।
जैसे मै ये नही जान पाता ,
की मेरी बूंदे कहां जाएन्गी ।
वैसे ही मधुलिका को नही पता होगा ,
की वो कल कहां पहुच जाएगी । "

Friday, February 2, 2007

मधुलिका - भाग चार

रात और दिन तो
मानव की सोच मे है ।
मेरे लिये तो उनमे,
सिर्फ समय का अन्तर है ;
जैसे सोने और जागने मे
एक सिर्फ स्थिथी का ,
मात्र चाहने और होने का
ऑख खुलने का ही अन्तर है ।
मेरा तातपर्य मधुलिका से ,
और उसके जीवन से,
दूर जाना नही है ।
सिर्फ ये समझाना है की ,
दिन के होने से उसका ,
कोइ भी दुख या सुख
बदल नही सकता ।
मधुलिका बहुत विचलित थी
और ये नही समझ पा रही थी
की अब क्या उसे करना है ।
मनुष्य नदी समान अपनी
उथल पुथलता लिये
यू आगे बढ्ता रेह्ता है ।
मार्ग रहित आखे बन्द किये
यू ही चलता है ;
द्रिष्टी रहित !
मार्ग रहित !
पर मधुलिका के जीवन मे ,
अन्धेरा सिर्फ यादों का था ।
व्यर्थ बातो का था ।
वो आज वसन्त को देख के भी ,
नही देख पाती थी ।
बार बार कान बन्द कर लेती ,
और उसे सुनने से मना करती
जो की उसका आज है ।

चलो मधुलिका मै तुम्हे लेने आया हूं
जो अब तक ना दिया वही देने आया हूं


अपने ईश्वर से बोली
ये सत्य मै ना समझ पा रही हूं
अपने ही अन्तर्मन मे डूबे जा रही हूं
वही जिसने मेरा कल बिगाडा
मेरा आज सन्वारने आये ;
तो ऐसे मे कैसे मन
इसे सत्य मान पाये ।
मुझे आज भी याद है ,
कैसे मैने उसे भुलाया है ।
वही जिसे आपने वर्त्मान बना ,
सामने मेरे फिर बुलाया है ।
बहुत बडी उल्झन है ।
सवाल भी गेहरा है ।
महुलिका के आज पर ,
उसके कल का पेहरा है ।
पर आने वाला दिन
कोइ तो हल लाएगा ।
चाह के भी ना कोइ
कल को ना रोक पाएगा ।
नारी का मन पढने की कभी
कोशिश ना की थी ;
आज की तो जान
उसे कोइ ना समझ पाएगा।
जिसने इतना दुख देखा है
उसे क्या सुख समझ आएगा ?
क्या इसी सन्तुलन को निभाना
उसका जीवन बन जाएगा ?

Thursday, February 1, 2007

मधुलिका- भाग् पॉच

"कभी कभी कुछ अन्धेरे
उन अनेक उजालों से ,
कुछ पूर्ण विराम
उन अधूरी बातों से ,
कहीं ज़्यादा सुख दे जाते है ।
इन नये सवालो पे
बस मधुलिका
विराम लगा सकती थी ।
पर वो आज बस निरन्तर
स्व्यम को रोके जा रही थी ।
आज हवा भी इतनी तीव्र थी
के मानो धैर्य के ,
बान्ध मे ना समा रही हो ।
मैने रोका और कहा
हे तेजस्विनी !
यू व्याकुल ना हो
समय हर जवाब दे जाएगा
मधुलिका का जीवन क्या
फिर परिवर्तन के अधीन हो जाएगा ?
की वो वही रहेगी या
वसन्त खुशी बन उसे साथ ले जाएगा ?
पर जो कहते मैने सुना
वो समय भी ना सुन पाएगा
की विधाता उसे ढाल बना
ऐसा खेल रचाएगा ।

रात का वह सन्नाटा
जो बढ्ने को आया
तो मधुलिका के शब्दो ने
फिर एक बार उसे जगाया ।
उसकी वाणी सुनने
स्व्यम कूऍ का पानी जम गया ।
आज बादल और मेरे साथ
समय भी रुक गया ।
आठ वर्ष बीत गये इन्तज़ार के
अब तुम आये हो !
समझ नही आता
की जो नीर अब तक बहे
उसके लिये क्या उपाय लाये हो ?
जब पिता बन के आना था
तुम पति बन के आये हो ;
मेरे दुर्भाग्य को परखने
तुम देवता बन आये हो ।
पहले अपने लिये गये थे ,
आज मेरे लिये चले जाओ ।
और जो साथ कल लये हो
उसे भी लिये जाओ ।
इससे पहले रात का अन्धकार
कुछ समझ ही पाता
और भोर का पौ फट पाता,
कुछ क्रोध और कुछ असमन्जस मे
वसन्त उठा और चला गया ;
मधुलिका का मन जैसे
मानों उसी पल
पाताल मे समा गया । "