Saturday, February 24, 2007

मधुलिका - प्रथम

"ये क्या देख रहा हूं
उसकी ऑखों में फिर ,
वही सूनापन देख रहा हूं ।
मधुलिका को आज फिर ,
अकेला देख रहा हूं ।
कुछ साल पहले याद नही कितने ,
मधुलिका की आंखो को ,
खुद को देखता पाया था ।
बाकी तो सब बदल गया है ,
बस वही ताकती आखें हैं ।
तब भी इतने सवाल थे उनमे ,
की लगा था मुझे ,
नाम इसका प्रशनावली होगा ।
आज भी उसमे कोइ बात
मुझे चुभ जाती है ,
कि बस कही मेरी गती थम जाती है ।

तभी देखा की कोइ पुकारता ,
एक पैर ज़मीन पर घसीटता
"मां" कह्ता आ रहा था ।
मुझे रिश्तो की समज़ तो थी
हालाकीं इन्हे मानव जितना
मैं मेहसूस नही कर पाता ।
पर ये शब्द "मां"
मुझे अत्यन्त भाता ।
पहले मैं रुका नही था ,
पर हवा मुझे कहे जा रही थी ,
की शायद रुकना होगा आज
और अब कल ही आगे ,
किसी और दिशा चलना होगा ।

रात में और मुझमॅ गहरी दोस्ती है ।
पर आज वो कुछ परेशान थी ।
मैने जैसे ही कुछ कहा वो रो पडी ।
हम सब में एक बस रात है ,
जिसे नारायन ऑसूं दे गये है ।
बोली मैं और ये देख नही सकती ,
मधुलिका की पीड़ा का ,
दुख का और कारण नही बन सकती ।
मै हैरान था की रात को ,
ये क्या भ्रम अवश्य एक भ्रम हुआ है ।
हम सब तो सिर्फ यन्त्र है ,
कैसे फिर संगीत बिगाड सकते हैं ।
हम तो गान्डीव का तीर हैं ,
कैसे दिशा साध सकते हैं ।
पर बिना कथा जाने कुछ कहना ,
या कभी कभी सब कुछ कह जाना ,
सिर्फ मनुष्य का स्वभाव है ।
तभी स्वयम रात बोली ,
मेरा आना ही उसका दुर्भाग्य बन जाता है
और अब ये स्वयम मुझे दुखी कर जाता है। "

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