Tuesday, February 20, 2007

मधुलिका - भाग तीन

"इतने में मधुलिका आ गयी ,
रात पे जैसे चुप्पी सी छा गयी ,
वो अपने हाथ मे कुछ ले आयी थी ।
एक टुकडा था कागज़ का ,
जिसे पढ के आखों मे उसके
शायद नमी आयी थी ।
क्या था उस कागज़ मे ?
रात को भी ना कोइ अनुमान था ,
बीती हुई बातो का
फिर मुझे कहां ग्यान था ।
एक टक उसने ऊपर देखा
उसके सारे दुख मुझे ,
अब नज़र आ गये ।
कुछ अनकहे शब्द
जो मधुलिका के नयन से बह ,
धर्ती मे समा गये ।
कैसे ले आऊं वो पल
वो जो सारे बीत गये !
हे अन्तरयामी क्यों सुख सारे
जीवन से मेरे छीन गये ?
अब ये क्या खत लेके आये हो
वसन्त को यहां क्यो लाये हो ?
उसे गये हुए अब कई साल हो गये
अकेले जीने का अब
अभ्यास सा हो गया है ।
अब उसे यहां क्यों आना है ?
जो बचा है क्या वो भी ले जाना है !
इतना बोल वो चली गयी ,
रात को फिर रोने की आज़ादी मिल गयी ।
अब मुझे सब कुछ नझर आ रहा था ,
मन ही मन मै मुस्कुरा रहा था ।

निराधार है ये सन्ताप ।
कल के लिये आज रोना ,
है बहुत बडा पाप ।
फिर मैने रात से कहा
ये अग्यानता मत दिखाओ
यू भाग्य और कर्म को
अपने अस्तित्व से न जोडे जाओ ।
जो मधुलिका के जीवन में है
उसे देखना ही होगा ।
पहले यूं सन्ताप कर
विधाता की हंसी न उडाओ ।

जन्म से जुडे हुए सवाल ,
हम कभी ना जान सकते है ।
आम के पेड पे आम ही आएगा ,
बस यही मान सकते है ।
अब सिर्फ मानव ही
इसपे सवाल लगायेगा ।
मधुलिका साहसी है
और यही साहस
उसका गेहना बन जायगा ।
हम और तुम चाह कर भी ,
उसका कल नहीं बदल सकते ।
और जो कल हो गया उसे
देख के आगे नही बढ सकते ।
मधुलिका की पीडा का
तुम कारण नही !
और न ही आने वाली खुशी
मेरे या तुम्हारे वश मे है !
पर जीवन मे हर पल का ,
कोइ न कोइ कारण है ।

जो उसे दुख दिखा रहा है ,
वो सुख भी दिखाएगा ।
जो इस जन्म मे मानव ने किया ,
वो उसे यहीं मिल जाएगा ।
समय से पहले दुखी होना ,
सिर्फ मानव स्वभाव है ।
तू ये दुख अब ना कर ,
ना ही ये तेरा काम है ।
अगर मधुलिका को कुछ देना है ,
तो उसे चुप्पी नही शन्ति दे ,
जिसमे सम्पूर्ण धर्ती सो जाती है ।
जैसे मै ये नही जान पाता ,
की मेरी बूंदे कहां जाएन्गी ।
वैसे ही मधुलिका को नही पता होगा ,
की वो कल कहां पहुच जाएगी । "

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